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असम के पूर्व गृह मंत्री की इकलौती बेटी ने दूसरी मंजिल से लगाई छलांग, अस्पताल पहुंचते ही हो गई मौत
पीटीआई, गुवाहटी। असम के पूर्व गृह मंत्री भृगु कुमार फुकन की इकलौती बेटी ने खुदकुशी कर ली है। पुलिस ने जानकारी दी है कि घर की दूसरी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या की है। मौके से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला है। भृगु कुमार फुकन का निधन साल 2006 में हो चुका है। उनकी 28 वर्षीय बेटी अपनी मां के साथ रहती थी।
मां के साथ रहती थी उपासनापुलिस अधिकारी ने बताया कि उपासना फुकन (28) ने रविवार को गुवाहाटी के खरघुली इलाके में अपने घर की दूसरी मंजिल से छलांग लगा दी। यहां वे अपनी मां के साथ रहती थी। घटना के बाद तुरंत उन्हें गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल ले जाया गया। जहां डॉक्टरों ने उपासना को मृत घोषित कर दिया। पुलिस अधिकारी ने कहा कि हमने अप्राकृतिक मौत का मामला दर्ज कर लिया है। मामले की जांच की जा रही है।
पहले भी की खुदकुशी की कोशिशपुलिस ने बताया कि शुरुआती जांच में पता चला है कि वह लंबे समय से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही थी। उपासना का इलाज भी चल रहा था। पुलिस के मुताबिक उपासना ने पहले भी खुदकुशी की कोशिश की थी। मगर इस बार मां घर के काम में व्यस्त थी। मौका देखते ही उपासना ने दूसरी मंजिल से छलांग लगा दी।
1958 में गृह मंत्री बने थे भृगु कुमार फुकनपुलिस अधिकारी ने बताया कि घर से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला है। उपासना के पिता भृगु कुमार फुकन 1985 में असम गण परिषद (AGP) की पहली सरकार में गृह मंत्री बने थे। भृगु कुमार फुकन असम समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में भी शामिल थे।
कृषि मंत्री ने जताया शोकअसम के कृषि मंत्री और एजीपी अध्यक्ष अतुल बोरा ने एक्स पर लिखा कि मैं ऐतिहासिक असम आंदोलन के प्रमुख नेता और असम के पूर्व गृह मंत्री दिवंगत भृगु कुमार फुकन की बेटी उपासना फुकन के असामयिक और दुर्भाग्यपूर्ण निधन से बहुत दुखी हूं। दुख की इस घड़ी में मैं शोक संतप्त परिवार के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं। ईश्वर से उनकी दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता हूं। ओम शांति!"
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भारत की 46% वर्कफोर्स कृषि क्षेत्र में, इसलिए कृषि आयात बढ़ने पर बड़ी आबादी के लिए बढ़ेगी मुश्किल
एस.के. सिंह, नई दिल्ली।
अमेरिका के दक्षिण और मध्य एशिया मामलों के सहायक व्यापार प्रतिनिधि ब्रेंडन लिंच की अगुवाई में अमेरिकी टीम पिछले हफ्ते भारत में थी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 2 अप्रैल से रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की धमकियों के बीच भारतीय अधिकारियों ने इस टीम के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) पर बात की। आगे अलग-अलग सेक्टर के लिए बातचीत होनी है। खबरों के मुताबिक इस बातचीत में कृषि उत्पादों पर भी चर्चा हुई। भारत ने बोरबॉन ह्विस्की पर आयात शुल्क पहले ही 150% से घटाकर 100% किया था। अब बादाम, अखरोट, क्रैनबेरी (करौंदा), पिस्ता, मसूर पर भी आयात शुल्क कम किया जा सकता है। इनके बदले भारत अमेरिका को चावल और फलों का निर्यात बढ़ाना चाहता है।
दरअसल, ट्रेड वॉर के कारण अमेरिका से सबसे अधिक कृषि आयात करने वाला चीन उस पर धीरे-धीरे निर्भरता कम कर रहा है। इसलिए अमेरिका अपने उत्पाद बेचने के लिए नए बाजार तलाश रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप की पिछली साझा बैठक में की गई घोषणा के मुताबिक दोनों देश अक्टूबर तक द्विपक्षीय व्यापार समझौते को अंतिम रूप देंगे। इस बीच, यूरोपियन यूनियन के साथ कई वर्षों से बंद पड़ी मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) वार्ता भी नए सिरे से शुरू हुई है। इसे भी इसी साल अंतिम रूप देने का लक्ष्य है। अमेरिका और यूरोप भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदारों में हैं। उनके साथ हमारा कृषि व्यापार भी बहुत होता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इन व्यापार वार्ताओं में भारत को अपने कृषि क्षेत्र को संरक्षित रखने की पुरानी नीति से नहीं हटना चाहिए।
विशेषज्ञों के अनुसार, कृषि आयात आसान बनाने पर भारतीय किसानों के लिए विकसित देशों के भारी-भरकम सब्सिडी पाने वाले किसानों के साथ मुकाबला करना मुश्किल हो जाएगा। पिछले सप्ताह, 18 मार्च को अमेरिका के राष्ट्रीय कृषि दिवस पर कृषि मंत्री ब्रूक रोलिंस ने घोषणा की कि उनका मंत्रालय इमरजेंसी कमोडिटी असिस्टेंट प्रोग्राम (ECAP) के तहत फसल वर्ष 2024 के लिए किसानों को सीधे 10 अरब डॉलर (लगभग 85,000 करोड़ रुपये) की मदद जारी करेगा। उन्होंने कहा, “किसान ऊंची लागत तथा बाजार में अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं, और ट्रंप प्रशासन ने तय किया है कि किसानों को जरूरी मदद बिना देरी के मिले। कृषि मंत्रालय (USDA) इस मदद राशि को प्राथमिकता के आधार पर भुगतान करना चाहता है ताकि बढ़ते खर्च से निपटने के लिए तथा अगले सीजन से पहले किसानों के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन हो।”
अमेरिकी कृषि मंत्रालय के अनुसार 2022 में वहां 34 लाख किसान थे। मार्च 2025 की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक वहां 2024 में कुल 18.8 लाख खेत थे और कुल जोत 87.6 करोड़ एकड़ थी। खेत का औसत आकार 466 एकड़ था।
सिर्फ कृषि दिवस पर घोषित मदद राशि और किसानों की संख्या का सामान्य अनुपात देखें तो अमेरिका के हर किसान को 2.5 लाख रुपये मिलेंगे। तुलनात्मक रूप से भारत में किसानों को साल में मात्र 6,000 रुपये किसान सम्मान निधि के तहत मिलते हैं। भारतीय किसानों को उर्वरक, फसल बीमा, फसल कर्ज आदि पर सब्सिडी भी मिलती है, लेकिन तुलनात्मक रूप से अमेरिका और यूरोप में कृषि सब्सिडी बहुत ज्यादा है। हर अमेरिकी किसान को वहां की सरकार साल में 26 लाख रुपये से ज्यादा की मदद देती है।
कृषि पर टैरिफ में अंतरभारत-अमेरिका ट्रेड वार्ता में एक अहम मसला कृषि का है। अमेरिका चाहता है कि भारत कृषि आयात पर शुल्क कम करे। रेसिप्रोकल टैरिफ के तहत ट्रंप ने विभिन्न देशों के आयात पर उतना ही शुल्क लगाने की धमकी दी है जितना दूसरे देश अमेरिका से आयात पर लगाते हैं। रिसर्च ग्रुप ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव (GTRI) के संस्थापक और विदेश व्यापार नीति के विशेषज्ञ अजय श्रीवास्तव जागरण प्राइम से कहते हैं, “भारत का औसत कृषि टैरिफ 37.7% और अमेरिका का 5.3% है। कागज पर यह अंतर बहुत बड़ा लग सकता है, लेकिन हकीकत थोड़ा अलग है। अमेरिका जटिल और अपारदर्शी टैरिफ भी लगाता है, जिससे वहां कृषि को संरक्षण बढ़ जाता है। इस लिहाज से देखें तो टैरिफ का वास्तविक अंतर जितना दिखता है उतना है नहीं।”
श्रीवास्तव के मुताबिक, अमेरिका को भारत का कृषि निर्यात कैलेंडर वर्ष 2024 में 5.7 अरब डॉलर का था। इसमें सबसे अधिक श्रिंप और प्रॉन का 2.2 अरब डॉलर, बासमती-गैर बासमती चावल का 38.6 करोड़ डॉलर, शहद का 14.13 करोड़ डॉलर, सब्जियों के एक्सट्रैक्ट का 39.92 करोड़ डॉलर, इसबगोल का 14.84 करोड़ डॉलर, अरंडी के तेल का 10.62 करोड़ डॉलर और काली मिर्च का 18 करोड़ डॉलर का निर्यात हुआ।
पिछले साल अमेरिका से भारत ने 1.9 अरब डॉलर का कृषि आयात किया। इसमें बादाम का 86.56 करोड़ डॉलर, अखरोट का 2.45 करोड़ डॉलर, ब्राजील नट का 13 करोड़ डॉलर, पिस्ता का 12.96 करोड़ डॉलर, इथाइल अल्कोहल का 43.95 करोड़ डॉलर, सेब का 3.81 करोड़ डॉलर और मसूर का 6.45 करोड़ डॉलर का आयात किया गया।
कृषि निर्यात में भारत की निर्भरता अधिकक्रिसिल इंटेलिजेंस के डायरेक्टर पुशन शर्मा बताते हैं, कृषि कमोडिटी में अमेरिका, भारत का बड़ा साझेदार है। कैलेंडर वर्ष 2024 में भारत ने कुल 38.3 अरब डॉलर के कृषि उत्पादों का आयात किया। इसमें अमेरिका का हिस्सा 6% था। इसी अवधि में भारत के कृषि निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 8% रहा। अमेरिका ने पिछले साल कुल 222 अरब डॉलर के कृषि उत्पादों का आयात किया, जिसमें भारत का हिस्सा 2% था।
कृषि उत्पादों के मामले में अमेरिका और भारत की एक दूसरे पर निर्भरता समान नहीं है। भारत के कृषि आयात में अमेरिका पांचवें स्थान पर है जबकि भारत सबसे अधिक कृषि निर्यात अमेरिका को ही करता है।
अमेरिका के संभावित टैरिफ वृद्धि से भारतीय निर्यात को नुकसान हो सकता है। कुछ प्रोडक्ट ऐसे हैं जिनके भारत के निर्यात में अमेरिका का हिस्सा तो अधिक है, लेकिन उस प्रोडक्ट के अमेरिका के कुल आयात में भारत का हिस्सा ज्यादा नहीं है। अर्थात अमेरिका उन प्रोडक्ट का दूसरे देशों से भी बड़ी मात्रा में आयात करता है। इनमें श्रिंप और प्रॉन, प्राकृतिक शहद और बेकरी प्रोडक्ट शामिल है। अगर अमेरिका रेसिप्रोकल टैरिफ लगाता है तो इनका निर्यात अधिक प्रभावित होगा।
कुछ प्रोडक्ट ऐसे भी हैं जिनमें अमेरिका के आयात में भारत का हिस्सा तो अधिक है, लेकिन भारत के उस वस्तु के कुल निर्यात में अमेरिका का हिस्सा ज्यादा नहीं है। अर्थात उस वस्तु का भारत दूसरे देशों को भी काफी निर्यात करता है। इनमें मिल्ड राइस और अरंडी का तेल भी शामिल हैं। इनमें टैरिफ का जोखिम कम है क्योंकि इनके निर्यात में भारत अमेरिका पर अधिक निर्भर नहीं है।
छोटे किसानों के लिए आजीविका का सवालसोनीपत स्थित जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर अवनींद्र नाथ ठाकुर कहते हैं, “भारत में 46% वर्कफोर्स कृषि पर निर्भर है, और उनमें भी लगभग 88% छोटे और सीमांत किसान हैं। उनके लिए यह रोजगार से ज्यादा आजीविका का सवाल है।”
इसलिए श्रीवास्तव की राय में “बिना सावधानी बरते कृषि पर टैरिफ घटाना भारत के कृषि क्षेत्र के लिए विनाशकारी होगा। 70 करोड़ से अधिक भारतीय आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। खासकर डेयरी, मीट, अनाज और दाल जैसे संवेदनशील कमोडिटी का सस्ता और सब्सिडी वाला आयात बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आमदनी प्रभावित होगी। गांव वालों की स्थिति पहले ही कमजोर है, वह और खराब होगी।”
वे कहते हैं, “अमेरिका के किसानों को सब्सिडी और बीमा का बहुत फायदा मिलता है, जो आमतौर पर उनकी उत्पादन लागत से अधिक होता है। दूसरी तरफ भारत के ज्यादातर किसान छोटी जोत वाले हैं। उनके पास संसाधन भी सीमित होते हैं। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी सरकारी स्कीमों पर काफी निर्भर रहते हैं। टैरिफ कम करने पर न सिर्फ ये किसान प्रभावित होंगे, बल्कि करोड़ों गरीब परिवारों की खाद्य सुरक्षा भी कमजोर होगी।”
प्रो. अवनींद्र के अनुसार, “अमेरिका और यूरोपीय देश पहले ही कृषि पर बहुत सब्सिडी देते हैं। उनके प्रोडक्ट पहले ही डंप-कीमत पर होते हैं। वे देश ऐसा कर सकते हैं क्योंकि कृषि पर उनकी जीडीपी और रोजगार की निर्भरता बहुत कम है। भारत के लिए ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि हमारी आधी वर्कफोर्स कृषि में लगी हुई है।” अमेरिका की आबादी 34 करोड़ है। इस लिहाज से वहां की सिर्फ एक प्रतिशत आबादी कृषि में है।
प्रो. अवनींद्र कहते हैं, “छोटे और सीमांत किसानों को शायद ही बाजार मूल्य मिलता हो। उनके पास उपज को अपने पास रखने की क्षमता नहीं होती, इसलिए उन्हें अपनी उपज को तत्काल बेचना होता है। भारत के ज्यादातर किसान फसल की कटाई के बाद डिस्ट्रेस सेलिंग करते हैं।”
आयात शुल्क घटाने के प्रभाव पर प्रो. अवनींद्र कहते हैं, भारत में पोल्ट्री की डिमांड बढ़ रही है जिसमें मक्का और सोयाबीन फीड के तौर पर प्रयोग किया जाता है। आने वाले समय में पोल्ट्री के साथ मक्का और सोयाबीन की डिमांड भी ज्यादा होगी। अभी देश में मक्के की खेती बढ़ रही है। अगर इस पर आयात शुल्क कम किया गया तो इससे वे किसान प्रभावित होंगे जो गेहूं-धान की पारंपरिक खेती छोड़कर इसे अपना रहे हैं। हाल के वर्षों में भारत कपास के निर्यातक से इसका आयातक बन गया है। अगले कुछ वर्षों में कपास की मांग तेजी से बढ़ने की उम्मीद है। अगर अमेरिका से बड़े पैमाने पर कपास आयात होने लगा तो भारतीय किसानों पर उसका बहुत बुरा असर होगा।
रेसिप्रोकल टैरिफ का असरजीटीआरआई का आकलन है कि रेसिप्रोकल टैरिफ का सबसे अधिक असर मछलियां, मीट तथा अन्य प्रोसेस्ड सी-फूड पर होगा। पिछले वर्ष भारत से अमेरिका को इनका 2.58 अरब डॉलर का निर्यात हुआ था। इसमें टैरिफ का अंतर 27.83% का है। भारत से अमेरिका को श्रिंप का बड़े पैमाने पर निर्यात होता है। लेकिन इतना टैरिफ लगने पर यह प्रतिस्पर्धी नहीं रह जाएगा। प्रोसेस्ड फूड, चीनी तथा कोकोआ का निर्यात एक अरब डॉलर से अधिक का होता है और इनमें भी 24.99% टैरिफ का अंतर है। इतना टैरिफ बढ़ने से भारतीय स्नैक्स और कन्फेक्शनरी प्रोडक्ट अमेरिका में महंगे हो जाएंगे।
पिछले साल अनाज, फल-सब्जियां तथा मसालों का 1.91 अरब डॉलर का निर्यात हुआ था और इनमें टैरिफ का अंतर 5.72% का है। भारतीय निर्यात पर इतना टैरिफ लगने से चावल और मसाले का निर्यात प्रभावित हो सकता है। डेयरी प्रोडक्ट में टैरिफ का अंतर 38.23% का है। अगर इतना टैरिफ बढ़ा तो घी, बटर और मिल्क पाउडर का 18.5 करोड़ डॉलर का निर्यात प्रभावित होगा और भारतीय प्रोडक्ट का मार्केट शेयर भी कम हो जाने की आशंका रहेगी।
पिछले वित्त वर्ष भारत से खाद्य तेलों का 19.97 करोड़ डॉलर का निर्यात हुआ और इसमें टैरिफ अंतर 10.67% का है। टैरिफ से अमेरिका में भारतीय नारियल और सरसों तेल महंगे हो जाएंगे। अल्कोहल और स्पिरिट आदि पर टैरिफ का अंतर 122% और एनिमल प्रोडक्ट पर 27% से अधिक है, हालांकि भारत से अमेरिका को इनका निर्यात अधिक नहीं होता है। तंबाकू और इसके उत्पादों का निर्यात प्रभावित नहीं होगा क्योंकि इन पर भारत की तुलना में अमेरिका अधिक टैरिफ लगाता है।
यूरोपियन यूनियन के साथ एफटीए वार्तायूरोपियन यूनियन (ईयू) के साथ मुक्त व्यापार समझौते में कृषि बड़ा मुद्दा रहा है। ईयू भारत पर चीज और स्किम्ड मिल्क पाउडर (SMP) पर टैरिफ घटाने का दबाव डालता रहा है, जबकि भारत ने ऊंचे टैरिफ की मदद से घरेलू डेयरी इंडस्ट्री को बचा रखा है। 2023-24 में भारत ने ईयू को 4.3 अरब डॉलर का निर्यात किया और 2.5 अरब डॉलर का आयात हुआ। भारतीय वस्तुओं पर ईयू में औसतन 15.2% टैरिफ लगता है जबकि भारत वहां से आने वाले कृषि उत्पादोंपर औसतन 42.7% टैरिफ लगाता है।
क्रिसिल के पुशन शर्मा के मुताबिक भारत ने कैलेंडर वर्ष 2024 में यूरोपियन यूनियन से एक अरब डॉलर का कृषि आयात किया जबकि भारत का निर्यात लगभग 33 लाख डॉलर का रहा। अगर मुक्त व्यापार समझौता होता है तो ईयू से कृषि आयात बढ़ने की संभावना है।
उन्होंने बताया कि एफटीए से खासकर डेयरी इंडस्ट्री और शराब निर्माताओं पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। अल्कोहलिक पेय पदार्थों पर आयात शुल्क कम होने से यूरोप से इनका आयात बढ़ेगा और घरेलू निर्माताओं के लिए प्रतिस्पर्धा सघन होगी। दूध के सबसे बड़े उत्पादक भारत की डेयरी इंडस्ट्री को ईयू से सस्ते मिल्क प्रोडक्ट के आयात की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इन प्रोडक्ट में मिल्क एल्बुमिन, लैक्टोज और ह्वे शामिल हैं। इनके विपरीत खाद्य तेल क्षेत्र को कम प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है। भारत खाद्य तेलों के आयात पर काफी निर्भर है। यूरोप से सनफ्लावर और ऑलिव ऑयल का आयात होगा तो कुछ सेगमेंट में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो कुछ में बहुत मामूली फर्क पड़ेगा।
ईयू की नॉन-टैरिफ बाधाएं भारत के लिए समस्याईयू का कृषि टैरिफ सिस्टम काफी जटिल है और यह दोनों पक्षों की बातचीत में आड़े आती रही है। जीटीआरआई के अनुसार, ईयू 915 कृषि वस्तुओं पर नॉन-एडवैलोरम टैरिफ लगाता है इससे वहां इन वस्तुओं के आयात पर शुल्क काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा सैनिटरी और फाइटो-सैनिटरी नियम तथा टेक्निकल बैरियर टू ट्रेड (टीबीटी) जैसे नॉन-टैरिफ बाधाओं की वजह से भारतीय कृषि उत्पादों के लिए यूरोप के बाजार में पैठ बनाना मुश्किल होता है। अगर ईयू ने टैरिफ घटा दिया तो भी वहां का रेगुलेटरी ढांचा भारतीय किसानों और निर्यातकों के लिए बड़ी समस्या रहेगी।
यूरोप के वाइन निर्माता भारतीय बाजारों में अधिक पहुंच चाहते हैं। यहां यूरोपियन वाइन पर 150% आयात शुल्क लगता है। यूरोप चाहता है कि भारत इसे पूरी तरह खत्म करे या घटाकर 30-40% तक ले आए। ऑस्ट्रेलिया के साथ इकोनामिक कोऑपरेशन एंड ट्रेड एग्रीमेंट (ECTA) के तहत भारत ने 10 साल में वाइन आयात पर शुल्क घटाकर 50% करना तय किया है। यूरोप के साथ भी ऐसा कुछ संभव है। हालांकि भारतीय वाइन निर्माता इसका विरोध करेंगे क्योंकि आयात सस्ता होने पर उनके लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
भारत में कृषि को संरक्षण नियमों के मुताबिकश्रीवास्तव के मुताबिक, “भारत वैश्विक व्यापार नियमों के मुताबिक ही अपने कृषि क्षेत्र को संरक्षण देता है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) विकासशील देशों को खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका को संरक्षण देने के उपाय अपनाने की अनुमति देता है। पहले भी भारत ट्रेड डील में कृषि को विशेष ट्रीटमेंट देने की बात करता रहा है और हमें इसे जारी रखना चाहिए।”
वे कहते हैं, “चुनौती सिर्फ टैरिफ की नहीं बल्कि ढांचागत संतुलन की भी है। अमेरिका और यूरोप में कृषि को काफी सब्सिडी मिलती है। वहां की कृषि व्यवस्था काफी मैकेनाइज्ड है। भारत में कृषि श्रम सघन है और बड़ी मुश्किल से किसानों को मुनाफा हो पाता है। इन किसानों को भारी-भरकम सब्सिडी पाने वाले अमेरिकी किसानों के साथ रेस लगाने के लिए कहना साइकिल और ट्रेन के बीच रेस लगाने जैसा होगा।”
भारत के लिए क्या करना उचितप्रो. अवनींद्र के अनुसार, “भारत में मक्का, सोयाबीन, कपास की डिमांड बढ़ने वाली है। इसलिए हमें अपने किसानों को इंसेंटिव देना चाहिए कि वे इन फसलों की खेती बढ़ाएं। रिसर्च और डेवलपमेंट के जरिए उनकी उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश की जानी चाहिए ताकि भारतीय किसान अधिक से अधिक उत्पादन करें। अगर आयात की अनुमति दी गई तो भारतीय किसान कभी बढ़ती हुई मांग की ओर नहीं जाएंगे और फसलों का विविधीकरण नहीं हो सकेगा।”
वे कहते हैं, “ट्रेड वार्ता में भारत को अपना पक्ष मजबूती से रखना चाहिए। खाद्य सुरक्षा और किसानों की आजीविका का हवाला देना चाहिए। निर्यात का विविधीकरण भी बहुत जरूरी है। हमें कच्ची फसलों की जगह प्रोसेस्ड फूड के निर्यात की ओर भी बढ़ना चाहिए। प्रोसस्ड फूड की कीमत अच्छी मिलेगी उसका बाजार भी बड़ा होता है।”
श्रीवास्तव के मुताबिक, “भारत की प्राथमिकता अपनी खाद्य प्रणाली के संरक्षण, किसानों की आय की सुरक्षा और ग्रामीण स्थिरता सुनिश्चित करने की होनी चाहिए, बजाय इसके कि हम असमानता को बढ़ावा देने वाले व्यापार उदारीकरण में तेजी लाएं। व्यापार वार्ता आपसी सम्मान और वास्तविकता के आधार पर होनी चाहिए। भारत को संवाद के लिए खुला रहना चाहिए, साथ ही किसानों, खाद्य सुरक्षा और भविष्य के मसले पर दृढ़ भी रहना चाहिए।”
हालांकि पुशन शर्मा की दलील है कि अमेरिका के रेसिप्रोकल टैरिफ और यूरोप के साथ एफटीए का प्रभाव हर क्षेत्र में समान नहीं रहेगा। प्रॉन, श्रिंप और शहद की मांग अगर अमेरिका में कम होती है तो घरेलू मांग बढ़ाकर और दूसरे देशों को निर्यात करके उसकी भरपाई की जा सकती है। गन्ना (अल्कोहलिक पेय इंडस्ट्री का कच्चा माल), अनाज (बेकरी प्रोडक्ट का कच्चा माल) और डेयरी किसानों पर भी ज्यादा असर नहीं होगा क्योंकि इन उत्पादों के कई तरह के इस्तेमाल होते हैं और इनकी सप्लाई अनेक घरेलू तथा विदेशी मैन्युफैक्चरर को होती है। भारत के साथ अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच कृषि कमोडिटी में व्यापार को देखते हुए इस बात की संभावना कम है कि ट्रेड वार्ता से इन्हें अलग रखा जाएगा। भारत के पास कृषि कमोडिटी की विविध रेंज है। इनमें अल्फांसो आम और बासमती चावल जैसी यूनिक वैरायटी हैं। ये भारत को बड़ा अवसर प्रदान करती हैं।
'कानून को विज्ञान और तकनीक का लेना होगा सहारा', NFSU के कार्यक्रम में बोले जस्टिस कोटिश्वर सिंह
जेएनएन, गांधीनगर। गुजरात के गांधीनगर स्थित राष्ट्रीय न्यायालयिक विज्ञान विश्वविद्यालय (NFSU) के 'न्याय अभ्युदय- टेक्नो-लीगल फेस्ट' के समापन समारोह में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह पहुंचे। इस दौरान उन्होंने कहा कि न्याय प्रणाली को और अधिक मजबूत बनाने की खातिर कानून को विज्ञान और तकनीक का सहारा लेना चाहिए।
बुनियादी सुविधाओं का किया दौराजस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह ने उत्कृष्टता केन्द्र (सीओई) समेत विभिन्न अत्याधुनिक बुनियादी सुविधाओं का भी दौरा किया। उन्होंने एनएफएसयू के स्वदेशी उत्पादों को भी देखा। उन्होंने अपने संबोधन में कानून की प्रासंगिकता बनाए रखने और उसे समय की बदलती जरूरतों के अनुरूप ढालने की आवश्यकता पर बल दिया।
न्याय प्रणाली को मजबूत करना होगाजस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह ने कहा कि मौजूदा समय में कानून को वैज्ञानिक सटीकता के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में उन्होंने फोरेंसिक क्षेत्र में एनएफएसयू के प्रयासों की सराहना की और कहा कि अकेले कानून अधूरा है। न्याय प्रदान करने की प्रणाली को और मजबूत बनाने के लिए कानून को विज्ञान और तकनीक का सहारा लेना चाहिए। इससे न केवल कार्यकुशलता बढ़ाने में मदद मिलेगी, बल्कि न्याय भी अधिक कुशल बनेगा।
अपनी पिछली यात्रा को किया यादउन्होंने एनएफएसयू की अपनी पिछली यात्रा को भी याद किया और एनएफएसयू के शैक्षिक, अनुसंधान, जांच, प्रशिक्षण जैसे कार्यों की सराहना की। एनएफएसयू को देशभर में विशेष स्थान दिलाने के लिए कुलपति डॉ. जेएम व्यास के दूरदर्शी प्रयासों को भी सराहा।
कार्यक्रम में पहुंची ये हस्तियांकार्यक्रम का आयोजन एनएफएसयू में स्कूल ऑफ लॉ और फोरेंसिक जस्टिस एंड पॉलिसी स्टडीज ने किया। समापन समारोह में गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश इलेश जे. वोरा, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सोनिया गोकानी, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति केजे ठाकर, पूर्व जस्टिस वीपी पटेल और एनएफएसयू के कुलपति डॉ. जेएम व्यास मंच पर मौजूद रहे।
दो प्रतियोगिताओं का भी आयोजनसमापन समारोह में प्रो. एसओ जुनारे ने स्वागत भाषण पढ़ा। वहीं स्कूल ऑफ लॉ, फोरेंसिक जस्टिस एंड पॉलिसी स्टडीज के डीन एवं एनएफएसयू-दिल्ली के परिसर निदेशक प्रो. पूर्वी पोखरियाल ने कार्यक्रम रिपोर्ट पेश की। कार्यक्रम में एसएलएफजेपीएस, एनएफएसयू जर्नल ऑफ लॉ एंड आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एनएफएसयू जर्नल ऑफ फोरेंसिक जस्टिस के समाचार पत्र भी लॉन्च किए गए।
कार्यक्रम के तहत तृतीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी मूट कोर्ट प्रतियोगिता और राष्ट्रीय ट्रायल एडवोकेसी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इनमें देशभर की 61 टीमों ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम के अंत में गुजरात राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष डॉ. जज कौशल जे. ठाकर ने गुजरात सरकार की ओर से धन्यवाद ज्ञापन दिया गया।
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'शिक्षा का व्यावसायिक, सांप्रदायिक व केंद्रीयकरण हो रहा', मोदी सरकार पर सोनिया गांधी का हमला
आईएएनएस, नई दिल्ली। सोनिया गांधी ने शिक्षा प्रणाली पर केंद्र की मोदी सरकार की जमकर आलोचना की। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार शिक्षा के क्षेत्र में तीन सी (C) पर काम कर रही है। सरकार केंद्रीयकरण, व्यावसायीकरण और सांप्रदायिकरण पर जुटी है। शिक्षा के क्षेत्र में इसके घातक परिणाम होंगे। कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने समाचार पत्र में लिखे सोनिया गांधी के लेख को सोशल मीडिया पर साझा किया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आलोचनाअपने लेख में सोनिया गांधी ने लिखा कि केंद्र राज्य सरकारों को समग्र शिक्षा अभियान के तहत मिलने वाले अनुदान को रोककर पीएम-श्री योजना को लागू करने का दबाव बना रहा है। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की आलोचना की और कहा कि इस हाई-प्रोफाइल राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने देश के बच्चों और युवाओं की शिक्षा के प्रति बेहद उदासीन सरकार की वास्तविकता को छिपा दिया है।
केंद्रीयकरण से शिक्षा को अधिक नुकसानचिंता जाहिर करते हुए सोनिया गांधी ने लिखा कि पिछले 10 सालों में केंद्र सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में सत्ता का केंद्रीकरण, शिक्षा में निवेश का व्यावसायीकरण, निजी क्षेत्र को आउटसोर्सिंग और पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रम और संस्थानों का सांप्रदायिकरण किया है। सोनिया गांधी का मानना है कि केंद्रीकरण का सबसे अधिक नुकसानदायक असर शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है।
राज्यों से बात नहीं करती केंद्र सरकारसोनिया गांधी ने कहा कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक सितंबर 2019 के बाद से नहीं हुई है। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों से बात नहीं करती है। उनके मुद्दों पर विचार भी नहीं करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बदलाव और लागू करते वक्त भी केंद्र ने राज्यों से एक भी बार बात करना उचित नहीं समझा। यह इस बात का सबूत है कि केंद्र अपने अलावा किसी अन्य की आवाज पर ध्यान नहीं देता है। सोनिया गांधी का आरोप है कि संविधान की समवर्ती सूची से जुड़े विषय पर भी चर्चा नहीं की गई।
धमकाने वाली प्रवृत्ति भी बढ़ीअपने लेख में सोनिया गांधी ने लिखा कि संवाद की कमी के साथ-साथ धमकाने की भी प्रवृत्ति बढ़ी है। उन्होंने पीएम-श्री योजना का जिक्र किया और कहा कि शिक्षा प्रणाली का तेजी से व्यावसायीकरण किया जा रहा है। इसकी झलक राष्ट्रीय शिक्षा नीति में दिखती है।
2014 से देशभर में 89,441 सरकारी स्कूलों को बंद और एकीकृत होते देखा गया है। वहीं 42,944 अतिरिक्त निजी स्कूलों की स्थापना हुई है। सोनिया गांधी ने आरोप लगाया कि देश के गरीबों को सार्वजनिक शिक्षा से बाहर कर दिया गया है। उन्हें बेहद मंहगी और निजी स्कूल व्यवस्था के हाथों में धकेल दिया गया है।
सांप्रदायिकरण पर सरकार का जोरसोनिया गांधी का आरोप है कि सरकार का तीसरा जोर सांप्रदायिकरण पर है। शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से नफरत पैदा की जा रही है और उसे बढ़ावा दिया जा रहा है। यह भाजपा और संघ के दीर्घकालिक वैचारिक प्लान का हिस्सा है। एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव किया जा रहा है। महात्मा गांधी की हत्या और मुगल भारत से जुड़े पाठों को हटा दिया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि विश्वविद्यालयों में सरकार की विचारधारा के अनुकूल लोगों को नियुक्त किया जा रहा है।
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